Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं


नई रौशनी
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दुर्गा-पूजा के दिन समीप आये तो विन्ध्य के पिता ने बेटी और दामाद को बुलाने के लिए आदमी भेजा। विन्ध्य खुशी-खुशी मैके आई। मां ने बेटी और दामाद को रहने के लिए अपना कमरा दे दिया। दुर्गा-पूजा की रात को यह सोचकर कि पति न जाने कब वापस आएं, विन्ध्य प्रतीक्षा करते-करते सो गई।
सुबह उठी तो उसने अनाथ बन्धु को कमरे में न पाया। उठकर देखा तो मां का लोहे का सन्दूक खुला पड़ा था, सारी चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं और पिता का छोटा कैश-बाक्स जो उसके अन्दर रखा था, गायब था।
विन्ध्य का हृदय धड़कने लगा। उसने सोचा कि जिस बदमाश ने चोरी की है उसी के हाथों पति को भी हानि पहुंची है।
परन्तु थोड़ी देर बार उसकी दृष्टि एक कागज के टुकड़े पर जा पड़ी। वह उठाने लगी तो देखा कि पास ही कुंजियों का एक गुच्छा पड़ा है। पत्र पढ़ने से मालूम हुआ कि उसका पति आज ही प्रात: जहाज पर सवार होकर विलायत चला गया है।
पत्र पढ़ते ही विन्ध्य की आंखों के सामने अन्धेरा छा गया।
वह दु:ख के आघात से जमीन पर बैठ गई और आंचल से मुंह ढांपकर रोने लगी।
आज सारे बंगाल में खुशियां मनाई जा रही थीं किन्तु विन्ध्य के कमरे का दरवाजा अब तक बन्द था। इसका कारण जानने के लिए विन्ध्य की सहेली कमला ने दरवाजा खटखटाना आरम्भ किया, किन्तु अन्दर से कोई उत्तर न मिला तो वह दौड़कर विन्ध्य की मां को बुला लाई। मां ने बाहर खड़ी होकर आवाज दी- "विन्ध्य! अन्दर क्या कर रही है? दरवाजा तो खोल बेटी!"
मां की आवाज पहचानकर विन्ध्य ने झट आंसुओं को पोंछ डाला और कहा-"माताजी! पिताजी को बुला लो।"
इससे मां बहुत घबराई, अत: उसने तुरन्त पति को बुलवाया। राजकुमार बाबू के आने पर विन्ध्य ने दरवाजा खोल दिया और माता-पिता को अन्दर बुलाकर फिर दरवाजा बंद कर लिया।
राजकुमार ने घबराकर पूछा- "विन्ध्य, क्या बात है? तू रो क्यों रही है?"
यह सुनते ही विन्ध्य पिता के चरणों में गिर पड़ी और कहने लगी- "पिताजी! मेरी दशा पर दया करो। मैंने आपका रुपया चुराया है।"
राजकुमार आश्चर्य-चकित रह गये। उसी हालत में विन्ध्य ने फिर हाथ जोड़कर कहा-"पिताजी, इस अभागिन का अपराध क्षमा कीजिए। स्वामी को विलायत भेजने के लिए मैंने यह नीच कर्म किया है।'
अब राजकुमार को बहुत क्रोध आया। डांटकर बोला- "दुष्ट लड़की, यदि तुझको रुपये की आवश्यकता थी तो हमसे क्यों न कहा?"
विन्ध्य ने डरते-डरते उत्तर दिया-"पिताजी! आप उनको विलायत जाने के लिए रुपया न देते।"
ध्यान देने योग्य बात है कि जिस विन्ध्य ने कभी माता-पिता से रुपये पैसे के लिए विनती तक न की थी आज वह पति के पाप को छिपाने के लिए चोरी का इल्जाम अपने ऊपर ले रही है।
विन्ध्यवासिनी पर चारों ओर से घृणा की बौछारें होने लगीं। बेचारी सब-कुछ सुनती रही, किन्तु मौन थी।
तीव्र क्रोधावेश की दशा में राजकुमार ने बेटी को ससुराल भेज दिया।

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